ही गझल तशी खूप मोठी आहे, पण सध्यापुरतं आपण तिचं एक छोटं version बघू.
ह्याचे शायर आहेत सईद राझीद हझमी.
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पारा पारा हुआ पैराहन-ए-जाँ
फिर मुझे छोड़ गये चारागराँ
कोई आहट, न इशारा, न सराब
कैसा वीराँ है ये दश्त-ए-इम्काँ
वक़्त के सोग में लम्हों का जुलूस
जैसे इक क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ
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सईद राझीद हझमी
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शब्दार्थ :
पारा-पारा = टुकड़े-टुकड़े,
पैराहन-ए-जाँ = प्राणों का लिबास, शरीर,
चारागराँ = चिकित्सक, doctor,
सराब = मृगतृष्णा, मृगजळ,
वीराँ = वीरान,
दश्त-ए-इम्काँ = संभावनाओं का जंगल, सम्भावना क्षेत्र, संसार
सोग = शोक,
क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ = शोक मनाने वालों का कारवां, अंतयात्रा
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अनुवाद (श्रेय : चारुदत्त कुलकर्णी यांची पोस्ट)
माझ्या आयुष्याच्या वस्त्राचे सगळे तुकडे तुकडे झालेत,
आणी माझ्यावर उपचार करणारे जे, तेच मला सोडून गेले !
ना काही पायाचे आवाज ; ना काही इशारे ; ना मृगजळाचे कसलेही आभास,
किती वैराण झाले आहे हे आता सगळे एकटेपणाचे वाळवन्ट!
हे म्हणजे, दुःखाच्या काळातला प्रत्येक क्षण साजरा करतोय उत्सव,
अगदी प्रेत यात्रेला चाललेल्या समूहासारखा!
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ही गुलाम अलींच्या आवाजातली गझल नक्की ऐका
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