Sunday, July 10, 2016

मला आवडलेल्या गझल्स - पारा पारा हुआ


ही गझल तशी खूप मोठी आहे, पण सध्यापुरतं आपण तिचं एक छोटं version बघू.

ह्याचे शायर आहेत सईद राझीद हझमी.

------------------------------------------------

पारा पारा हुआ पैराहन-ए-जाँ
फिर मुझे छोड़ गये चारागराँ

कोई आहट, न इशारा, न सराब
कैसा वीराँ है ये दश्त-ए-इम्काँ

वक़्त के सोग में लम्हों का जुलूस
जैसे इक क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ

-
सईद राझीद हझमी
-------------------------------------------------

शब्दार्थ :
पारा-पारा = टुकड़े-टुकड़े,
पैराहन-ए-जाँ = प्राणों का लिबास, शरीर,
चारागराँ = चिकित्सक, doctor,
सराब = मृगतृष्णा, मृगजळ,
वीराँ = वीरान,
दश्त-ए-इम्काँ = संभावनाओं का जंगल, सम्भावना क्षेत्र, संसार
सोग = शोक,
क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ = शोक मनाने वालों का कारवां,  अंतयात्रा
---------------------------------------------------
अनुवाद (श्रेय : चारुदत्त कुलकर्णी यांची पोस्ट)

माझ्या आयुष्याच्या वस्त्राचे सगळे तुकडे तुकडे झालेत,
आणी माझ्यावर उपचार करणारे जे, तेच मला सोडून गेले !

ना काही पायाचे आवाज ; ना काही इशारे ; ना मृगजळाचे कसलेही आभास,
किती वैराण झाले आहे हे आता सगळे एकटेपणाचे वाळवन्ट!

हे म्हणजे, दुःखाच्या काळातला प्रत्येक क्षण साजरा करतोय उत्सव,
अगदी प्रेत यात्रेला चाललेल्या समूहासारखा!
-----------------------------------------------------

ही गुलाम अलींच्या आवाजातली गझल नक्की ऐका 

No comments:

Post a Comment